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हिंदी कहानी और कहानी नाटक |Hindi Kahani Or Story Collection ]

Hindi Kahani Or Story Collection

कहानी नाटक  


मेरे हिस्से की खाट 


आज पुरे दिन बॉस की बातें सुन सुन कर जब में शाम को घर की गली में घुसा तो देखा की घर के बाहर लोगो का जमावड़ा लगा हुआ है|  मै घबरा गया और मन  में अजीबोगरीब ख्याल आने लगे इन खयालो का आना वाजिब भी था कुछ दिनों से मम्मी की तबियत भी ठीक नहीं  चल रही थी 

मैंने अपना ऑफिस बैग जो कंधे से लटका हुआ था उसकी तनी  को कस कर पकड़ा और दौड़ते हुए लोगो के बीच से घर की चौखट तक  जब अंदर झांक के देखा तो मम्मी को लकड़ी के स्टूल पर बैठा देखकर   मेरी साँस में साँस आयी | 

 तभी  देखता हूँ कि भाभी के घर से कुछ लोग उनके  पापा और भईया आये हुए है उन दोनों को देख कर थोड़ी हैरानी भी हुई  तभी आयुष दौड़ कर  मेरे पास आ गया आयुष कहने को तो मेरा  भतीजा है पर बातें बड़ो  जैसी करता था तो हम  उसे प्यार से पापा कहते थे कियोकि वो बातें ही ऐसी करता था 
मेरे पापा स्वर्गीय- गोपालदास शर्मा जी..........! 
तभी आँगन में फैली  ख़ामोशी को भैया के ससुर विशाखा दत्त जी ने तोड़ते हुए कहा,"- अरे आओ बेटा अंकित बैठो  मै वह पड़ी खाट पर बैठ गया ऐसा लगा जैसे कोई अदालत चल रही है और मै वहां आरोपी की तरह हूँ जिसमे पड़ोसी दर्शक और भैया के ससुर जज है। 
मै खाट पर बैठ गया मेरे बैठते ही माँ ने पूछा बेटा पानी लाऊ,'' में बोला नहीं माँ प्यास नहीं है मैंने मना कर दिया नहीं माँ प्यास नहीं है 
''सच ही कहते है माँ होती ही ऐसी है जो औरत पिछले तीन दिन से  बुखार में पड़ी है पर मेरे ऑफिस से घर आने पर मुझे पानी जरूर पूछती है"
माँ और मेरे संवाद को भाभी के भाई अमर ने तोड़ते हुए बोला पानी-वानी होता रहेगा पहले कुछ काम की बात कर लेते है 
विशाखादत्त जी बोले,''देखो बेटा बात  ऐसी है कि हम यहाँ बटवारा करने आये है..........,
"बटवारा !!!!   
पर क्यों.........! "----मै बोला 
इस पर भाभी बोली,"क़ि मै आप सब से  परेशान आ गयी हु अब मुझसे इस घर का काम और नहीं होगा" इस बात पर जब मैंने भईया की ओर देखा और उनके चेहरे से पता चल रहा था कि वो कितना लाचार महसूस कर रहे थे। 

"भईया की शादी छह  साल पहले शिवांगी से हुई थी दोनों कॉलेज में साथ   पढ़ते थे फिर  साथ में प्लेसमेंट भी हो गया और फिर शादी हो गयी पर कुछ महीने बाद ही भईया का ट्रांसफर कंपनी ने दिल्ली कर दिया तो भैया  शिफ्ट हो गए और भाभी हमारे साथ मेरठ ही रहने लगी..... भईया वीकेंड्स पर घर आते तो मानो खुशियाँ अपने साथ ही लाते घर में वो दो दिन उत्सव का माहौल रहता था  कुछ दिंनो तक सब कुछ ठीक रहा फिर कुछ दिंनो बाद पापा को साँस की दिक्कत होने लगी."

पापा को अस्थमा था  बरसात के  मौसम में  अक्सर दिकक्त होती थी पर इसबार तबीयत ज्यादा ही बिगड़ गयी थी।  तो भईया ने तय  की भाभी जॉब छोड़ कर घर पर  रहेंगी और मम्मी का काम में हाथ बटाएंगी।
 इसी दौरान भईया को परमोशन मिल गया और  जूनियर C.A से सीनियर C.A बन गए। 

और एक दिन जब मैं कॉलेज से लौटा तो देखा की पापा की खाट के पास घर के सभी लोग जमा है. जब मैंने पास जा कर देखा तो पाया की पापा लेटे हुए आपनी अन्तिम सांसे ले रहे है मेरे पीछे से भईया घर पहुंच चुके थे। 
पापा को इस हालत में देखकर मेरी आंख से आंसू बहने लगे मेरे सामने मेरा पूरा परिवार धुँधलाने लगा था।  पापा ने माँ से बोले अब इस सब का ख्याल तुझे ही रखना है इतना बोलते ही मम्मी ने पापा को बोला ,''कि आप शांत रहो डॉक्टर ने आपको बोलने से मना किया है माँ अपनी बात बोलती रही और पापा हम सबसे  बहुत दूर ऐसी जगह जा चुके थे जहा से वो  मम्मी की बात का जवाब नहीं दे सकते थे। 

पापा के जाने के बाद  सारी  जिम्मेदारी भईया और भाभी के कंधो पर आ गयी।  जिसे उन्होंने बहुत  जिम्मेदारी के साथ निभाया। 
पर कभी कभी भईया-भाभी के बीच बहस होने लगे, भाभी भईया से इसी बात को हर बार बोलती थी कि,'' मुझे भी जॉब करनी है मैं अब इस घर में और नहीं रह सकती''
कभी-कभी ये बहस झगडे का रूप भी ले लिया करती थी। 

कुछ ही दिंनो में मैं भी कॉलेज से पास-आउट हो गया और  एक प्राइवेट फर्म में as a software-consultant काम करने लगा और कुछ दिन ऐसे ही बीत गये। 

और एक दिन हमारे घर एक नई ख़ुशी आयी माँ ने बताया की में चाचा बनने वाला हूं। 
घर में सभी बहुत खुश थे, पर भाभी कुछ कम खुश थी शायद ख़ुशी में कमी जिम्म्मेदरियो के बढ़ने के कारण थी  
उन दिंनो भाभी और भईया के बीच कुछ ज्यादा ही बहस होने लगी थी भईया जब भी वीकेंड्स पर घर आते तो भाभी और भईया के बीच झगडे होने लगे,मैं और माँ सबकुछ सुनते हुए भी ये सोच रहे थे की एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

और फिर एक दिन हमारे परिवार की खुशिया ले कर आयुष हमारे घर आया और सबको हमको लगने लगाकि अब सब ठीक हो जाएगा और ऐसा हुआ भी आयुष के आने से हमारे घर में खुशिया वापस आ गयी थी अब भईया -भाभी के बीच भी झगडे कम हो गए थे। 
लेकिन जैसे-जैसे आयुष बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे भईया -भाभी के बीच झगड़ा फिर से बड़ा होने लगा।  इन सब के बीच एक आयुष ही था जिसके चेहरे को देखकर सभी के चेहरे खिल उठते थे। 

मुझे मेरे ख्यालो से बाहर निकलने का काम अमर ने किया,"देखो हमने सारी चीज़ो का बटवारा कर  दिया है नीचे की मंजिल तुम्हारी और ऊपर की मंजिल दीदी की,सामान भी हमने आधा-आधा कर दिया है....... पर तुम चाहो तो दीदी का सामान भी तुम इस्तेमाल कर सकते हो क्यूकि दीदी और आयुष जीजा के साथ दिल्ली रहेंगे,"अमर बोला ! 
दिल्ली रहेंगे .......!," मैं आश्च्रर्य से बोला
तभी भाभी मेरी बात को काटते हुए बोली,"वैसे भी मेरी लाइफ के कई साल बर्बाद हो चुके है मैं अपनी पढ़ाई का इस्तेमाल करना चाहती हूं, और वैसे भी इस शहर(मेरठ) में रखा ही क्या है.......?,"
सही ही तो बोला था भाभी ने है ही क्या इस शहर में..... ?
जिस शहर से इस देश का इतिहास जुड़ा है.
उस घर में क्या रखा है?
जिस घर में वो पहली बार दुल्हन बन कर आयी थी जिस  घर में हमने खुशियाँ और गम देखे। उस घर में इन यादों के अलावा कुछ नहीं रखा है और है तो कुछ पुराना सामान जो कुछ समय पहले हमारा था जो अब मेरा तुम्हरा हो गया है 

भईया माँ को अपने साथ ले जाना चाहते थे पर माँ ने ही मना कर दिया 
इतने में अमर बोला कि,"सभी चीजों का बटवारा हो गया है अब बस ये खाट बची है इसे कौन रखेगा"।
वही खाट जो कभी पापा की हुआ करती थी जिस पर पापा ने घर की सारी जिम्मेदारी मम्मी को दी थी जिस पर एक जिंदगी का अंत और एक की शुरआत हुई थी जिस खाट को पकड़ कर आयुष खड़ा होना और धीरे-धीरे चलना सीखा था वही खाट जिस पर में अभी अपने अंदर के सारे जज्बातो और गुस्से को रोके बैठा था अब बारी  उस खाट की भी आ गयी थी 
मैं अपने सारे जज्बातों को समेटते हुए अपनी पूरी ताकत जुटाते हुए बोलने ही वाला था तभी भाभी बोली," ये खाट अंकित ही रख लेगा हमे नहीं चाहिए"।
भाभी के  मुँह से बात सुनकर मुझे  ख़ुशी भी हुई और दुःख भी। 
ख़ुशी इस बात की बात की पापा की वो आखिरी चीज़ जिस पर हमने बहुत-सी खुशियों के पल जो इस पर बैठ बिताये है उन्हें संजो कर रखने की जिम्मेदारी मुझे मिली है। 

और दुःख इस बात का की भाभी को ये सिर्फ एक पुरानी खाट लगी और उस से भी ज्यादा दुःख की बात ये लगी की भईया को इतना लाचार शायद ही कभी पहले देखा था। 
दुःख इस बात का भी था कि हम कितने स्वार्थी हो गए है जो सिर्फ अपने ही बारे में सोचते है।  
दुःख बात का भी था कि हमारे संस्कार हमारी जरूरतों के आगे हार गए।  

 लेखक-सुधीर पाल 

धन्यवाद् 
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