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हिंदी कहानी और कहानी नाटक(Best kahaniya in hindi)


ईमान की  चोरी

नमस्कार दोस्तों आप सभी का मेरे ब्लॉग पर स्वागत है आपको मेरे ब्लॉग पर BEST HINDI KAHANIYA OR NATAK पढ़ने को मिलेंगे ।  यह कहानियां और नाटक मनोरंजन से भरपूर और प्रेरणादायी  होंगे। 


kahaniya

मैं उस ढाबे पर बैठा हुआ यही सोच रहा था की मेरा अगला ग्राहक कौन बनेगा और इस शहर में मेरा नाम क्या होगा? 
उस समय मेरी उम्र 17 साल थी और मैं तब भी चोरी किया करता था  उस छोटी सी उम्र में भी मुझे काफी महारत हासिल थी और मैं आज तक कभी पकड़ा भी नहीं गया था।  
उसी समय मुझे ढाबे के दूसरे कोने में पड़ी टेबल पर राजू दिखाई दिया।  देखने में हष्ट-पुष्ट और पढ़ा-लिखा दिखाई देता था  जब मैंने उसे देखा तो मैंने मन ही मन ये तय कर लिया की मेरा अगला ग्राहक यही होगा। मैं उस से बोल-चाल बढ़ाने के लिए उसके पास गया।  उसके पास पहुंच के मैंने देखा की वो एक किताब पढ़ रहा था मैंने उसके पास जा कर बोला,''  ओह्ह तो तुम उन पढ़े लिखे लोगो के वर्ग से हो जिन पर इस देश को चालाने की जिम्मेदारी है ,"
उसने अपनी गर्दन ऊपर की ओर उठाई और मुझे अपनी अपनी मोटी मोटी आँखों से, जिन पर चश्मा चढ़ा था, से  देखते हुए बोला,"जी बिलकुल  ! मैं बोला चलो अच्छा है जी गाँधी जी कह कह मर गए पढ़ो-पढ़ो।  कोई तो पढ़ ही रहा है।  मेरी बात सुनकर वो  हल्का सा मुस्कुराया और पूछा," तुम्हारा नाम क्या है " मैं बोला,"विजय सिंह.......... !        


मैंने झूठ बोला --- मैं हर शहर में नया नाम रखता था और अब तो मैं अपना खुद का नाम भूल गया था ख़ैर नाम बदलने की भी अपनी वजह थी ऐसा करके मैं पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहता था। हर नए शहर में नई पहचान से मुझे आज़ादी भी मिलती थी की मैं कैसे भी घूम सकता था
 
और फिर मैंने उस से बोल-चाल बढ़ाने के लिए उससे बातें शुरू की तो पता चला की वो पेशे से एक लेखक है और यहाँ इस शहर में अकेला ही रहता है और उसे एक नौकर की जरुरत है हमारी  बातें ज्यादा देर तक तो नहीं हुई पर मैंने अपने अनुभव से  मतलब की बातें उससे निकलवा ली। 
हमारी इस छोटे से वार्तालाप के बाद जब राजू अपनी चाय खत्म  कर के ढाबे से बाहर निकला तो मेने उसे फिर से पकड़ लिया और उससे बोला की,"क्या मुझे काम मिलेगा?"
 
"मेरे पास पैसे नहीं है तुम्हे देने को...!," राजू ने  मुझसे कहा 
 मैंने थोड़ा सा सोचा और बोला ,"मुझे खाना तो मिलेगा ना  ....... ! राजू बोला ," तुम्हे खाना बनाना आता है...?" 
मैंने झूठ बोल दिया की ," हां खाने लायक बना लेता हूँ ,"
राजू बोला," चलेगा ," 
 फिर हम दोनों उसके घर आ गए जिसे देखने से लगा रहा था की राजू अच्छा-खासा कमा लेता है 


घर पहुंचते ही राजू ने मुझे मेरी काम की और रहने की जगह दिखाई। राजू मुझे रसोई में ले गया और बोला की ,"तुम यहाँ सो सकते हो "  मैं समझ गया था की अब मुझे खाना बनाना सीखना ही होगा क्यूकि उस रात जो मैंने खाना बनाया था वो हम तो क्या कोई जानवर भी नहीं खा सकता था और राजू को भी समझ आ गया था की खाना बनाने को लेकर मेने उस से झूठ बोला था। ,पर धीरे-धीरे मैं खाना बनाने में माहिर हो गया और घर के काम भी करने लगा। राजू एक बात मेरे  में जान गया था की मैं किसी भी काम को बहुत जल्दी सीख जाता हूँ। 
 

मैं अनपढ़ था जो कुछ सीखा लोगो की गाली खा कर और ज़िन्दगी की ठोकर खा कर सीखा था।  तो राजू ने मेरी कोई भी चीज़ को जल्दी सीख लेने की प्रवर्ति को देखकर मुझे पढ़ना और लिखना सीखना शुरू किया। और 2-3 महीने के अंदर में थोड़ा-थोड़ा लिखना पढ़ना सीख गया।  
और जेब खर्चे के लिए मैंने घर के सामान में कटौती करके बचत्त करना सीख  लिया था और राजू भी इस बात को जान गया था कि मैं घर के सामान में कटौती करके  कुछ जेब खर्च निकल रहा हूँ पर राजू ने  कभी मुझे नहीं टोका  बल्कि कभी-कभी मुझे अपनी जेब से भी पैसे दे दिया करता था 
राजू के साथ रह कर मुझे पता चला की वो  पैसे कैसे कमाता है वो एक अख़बार के लिए लेख लिखा करता था जिस से उससे ठीक-ठाक पैसे मिल जाते थे। पर जब पैसे मिलते तो वो उन्हें दोस्तों के साथ उड़ा दिया करता था वो बिलकुल बेफ़िक्र हो कर जिंदगी को जीता था। 
 

अब मुझे राजू के पास काम करते-करते 4 महीने से ऊपर हो चुके थे और राजू ने मुझे पूरी आज़ादी दे रखी थी मैं किसी भी टाइम आ जा सकता था और मेरे पास घर की एक फालतू चाबी भी थी 
और एक दिन राजू कुछ पैसे ले कर घर आया और उसने शराब पी रखी थी उसने मुझे बताया की आज उसे उसकी किताब का पब्लिशर मिल गया है
 
उसने वो पैसे अपनी तकिये के नीचे रखे और बिना खाना खाये सो गया।  राजू हमेशा से ही ऐसा था वो पैसे-पैसे को पैसा नहीं समझता था और हमेशा इसी तरह मुझ पर जरुरत से ज्यादा भरोसा दिखता था और यही उसे सबसे अलग बनाता था आज के ज़माने मेंजहाँ लोग अपने भाई-बहिन , पति-पत्नी  पर ,माँ-बाप अपनी औलाद पर भरोसा नहीं करते थे वो मुझ अनजान इन्सांन पर इतना भरोसा करता था।  इसीलिए उसे अपना शिकार बनाना [ग्राहक/लूटना] बहुत कठिन था। 

 

 खैर अब समय  आ गया था मुझे अपने काम को अंजाम तक पहुंचना था। मैं रसोई से उठ कर राजू के कमरे तक गया तो देखा की राजू बेफिक्र हो के सोया पड़ा है मैंने  तकिये को हल्का सा उठाया तो मुझे पैसे दिख गए।  पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी उन पैसो को चुराने की आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था मैंने जहा भी काम किया पूरी सफाई से किया और ऐसे किया की किसी को मुझ पर कभी शक नहीं हुआ और कभी किसी के यहाँ चोरी करते हुए मुझे इतना बुरा भी नहीं लगा वो शायद इसलिए भी था कि अब से पहले जिनके यहाँ भी मैंने  काम किया वो सभी धनाढ्य सेठ थे जो लोगो से पैसा चुराके पैसा कमाया करते थे. और अब से पहले किसी ने भी मुझे इतना प्यार और अपनापन महसूस नहीं करवाया था मैं ऐसी कश्मकश में था कि तभी मैंने घड़ी  के तरफ देखा तो उसमे रात के 12:30 हो रहे थे 


मैंने बहुत कोशिश की में चोरी न करू पर पिछले 15 साल के आतित ने मुझे झकझोड़ दिया कि जब में मात्र 3 साल का था तब जब उस रेफूजी कैंप में मैंने  रोटी की चोरी की थी।  तो तब में और अब में कोई ज्यादा फर्क नहीं है विजय तब अगर तू रोटी नहीं चुराता तो भूखा मर जाता और अब अगर तूने पैसे नहीं चुराए तो ये राजू इन्हे भी खर्च कर देगा और तुझे तेरा मेहनताना(4 महीने की तनख्वा ) भी नहीं देगा इस लिए ये पैसे चुरा कर तू इससे एक सबक मैं देगा की किसी पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए इसी सोच के साथ मैंने धीरे-धीरे राजू के तकिये के नीचे अपना हाथ डाला और पैसो को धीरे-धीरे बाहर  निकलने की कोशिश करने लगा। 


राजू अभी भी गहरी नींद में था मैंने पैसो को निकला और उन्हें अपनी शर्ट के अंदर डाल लिए और बैग को उठाया जिसमे मैंने  पहले से अपने थोड़े कपडे जो की राजू ने ही दिलवाये थे पैक करके रखे हुए थे मैंने बैग को उठाया और घड़ी की ओर देखा तो उसमे रात का 1 बजा था मेने अनुमान लगाया की अगली रेल गाड़ी मुझे 1:30 तक  मिल सकती हैऔर मैं घर से रेलवे स्टेशन के लिए निकल पड़ा घर से रेलवे स्टेशन तक का रास्ता 45 मिनट का था मेरी गाड़ी अगले आधे घंटे में थी तो मैंने भागना शुरू किया और भागते भागते किसी तरह मैं रेलवे स्टेशन तक पहुंचा मैं पसीने में पूरी तरह भीग चूका था वो पैसे जो मेने शर्ट के अंदर डाले थे वो भी भीग गए थे। सेशन पहुंच कर पानी पिया तब जा कर मुझे साँस में साँस आयी।  मैंने स्टेशन पर लगी घड़ी  में जब टाइम देखा तो  उसमे 1:38 मिनट हो रहे थे। मुझे लगा मेरी ट्रेन निकल गयी और अब कोई और ट्रेन सुबह से पहले थी भी नहीं।  मैं से सोच कर घबरा गया।  फिर मैंने नोटिस बोर्ड जहाँ ट्रेनों के आवाजाही की सूचना लिखी होती थी वहाँ जाकर पढ़ने की कोशिश  की तो पता चला की ट्रैन अभी 20 मिनट देरी  है राजू के साथ रह कर मैं  इतना पढ़ना सीख गया था।  उसके साथ रह कर मुझे बहुत सी अच्छी आदतों की बुरी लत्त लग गयी थी। ट्रेन आने में टाइम था तो मुझ से रहा नहीं गया और मैं जा कर के दिल्ली से लखनऊ तक की टिकट ले आया।


मैं टिकट ले कर स्टेशन की बेंच पर बैठा-बैठा था और सोच रहा था की जब राजू सुबह उठेगा और पायेगा की उसकी कमाई जो उसनें किताब लिखने केबाद कमाये थे चोरी हो गये तब उसे कैसा लगेगा...! 
 मैने चोरी तो कर ली थी पर मेरा मन आभी भी बहुत बैचेन था आज से  पहले मैने जितनी भी चोरी की थी ये चोरी उन सब से अलग थी क्योंकि ये चोरी  मैने दिल से की थी और बाकी सारी चोरी मैं दिमाग से करता था उन सभी चोरियों में मैंने पाया था ये पहली चोरी थी जिसमे मैं पैसा पा  कर अपना ईमान खो रहा था 


राजू ने इस चोरी में कुछ नहीं खोया उसके लिए पैसा पहले भी कोई मायने नहीं रखता था और इस चोरी से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।  पर इस चोरी से मैं अपना एकलौता दोस्त ,पढ़ने लिखने का मौका, आगे बढ़ने की चाह, अपने उसूल, और अपना ईमान सब खो दूंगा। 
"नही-नही मैं इतना सब  कुछ नही खो सकता, "मैंने खुद से बोला। मैं ये सब सोंच ही रहा था की रेलगाड़ी मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई। मेरे पैर मानो जम से गये हो मैं चाह कर भी ट्रेन मे न चढ़ सका। और ट्रेन मेरे सामने से निकल गई। 
मैं उस बेंच पर काफी देर तक बैठा रहा। और आखिर मे मेरे दिमाग मे चल रही अच्छाई और बुराई के बीच लड़ाई मे जीत मेरे अदंर छुपी अच्छाई की हुई और
मै उठकर पैदल घर तक पहूंचा अदंर जा कर देखा तो राजू अभी-भी बेफिक्र सो रहा था मैंने  शॉर्ट  में से पैसे निकाल कर वापस उसके तकिये के निचे रख दिए।  और रसोई में जाकर सो गया सुबह थोड़ी देर से उठा, राजू पहले ही उठ चूका था और उसने चाय बना कर मुझे भी दी और उन पैसो में से 1000 रुपए मुझे दे दिए और बोला  आज से ये तुम्हारी सैलरी  मैंने जब उन पैसो को छुआ तो वो अभी भी सिले(हलके गीले) थे उनमे से मेरे पसीने की गंध आ रही थी। शायद राजू ने ध्यान ही नहीं दिया की ये रुपये सिले  हुए है या शायद  इस बात को भी मेरी बाकि गलतियों की तरह नजरअंदाज कर दिया। चाहे जो भी हुआ हो पर राजू ने मुझे कुछ नही कहा। 


 मैं अपने इन्ही खयालो में खोया हुआ था तभी राजू बोला," की  उठो घर का काम निपटाओ और आज हम बहार खाना खाएंगे" मैं मुस्कुरया और बोला ,"नहीं आज खाना हम घर पर ही खाएंगे और मैं बनाऊंगा" ......... !

धन्यवाद् 

 



 

हिंदी कहानी और कहानी नाटक |Hindi Kahani Or Story Collection ]

Hindi Kahani Or Story Collection

कहानी नाटक  


मेरे हिस्से की खाट 


आज पुरे दिन बॉस की बातें सुन सुन कर जब में शाम को घर की गली में घुसा तो देखा की घर के बाहर लोगो का जमावड़ा लगा हुआ है|  मै घबरा गया और मन  में अजीबोगरीब ख्याल आने लगे इन खयालो का आना वाजिब भी था कुछ दिनों से मम्मी की तबियत भी ठीक नहीं  चल रही थी 

मैंने अपना ऑफिस बैग जो कंधे से लटका हुआ था उसकी तनी  को कस कर पकड़ा और दौड़ते हुए लोगो के बीच से घर की चौखट तक  जब अंदर झांक के देखा तो मम्मी को लकड़ी के स्टूल पर बैठा देखकर   मेरी साँस में साँस आयी | 

 तभी  देखता हूँ कि भाभी के घर से कुछ लोग उनके  पापा और भईया आये हुए है उन दोनों को देख कर थोड़ी हैरानी भी हुई  तभी आयुष दौड़ कर  मेरे पास आ गया आयुष कहने को तो मेरा  भतीजा है पर बातें बड़ो  जैसी करता था तो हम  उसे प्यार से पापा कहते थे कियोकि वो बातें ही ऐसी करता था 
मेरे पापा स्वर्गीय- गोपालदास शर्मा जी..........! 
तभी आँगन में फैली  ख़ामोशी को भैया के ससुर विशाखा दत्त जी ने तोड़ते हुए कहा,"- अरे आओ बेटा अंकित बैठो  मै वह पड़ी खाट पर बैठ गया ऐसा लगा जैसे कोई अदालत चल रही है और मै वहां आरोपी की तरह हूँ जिसमे पड़ोसी दर्शक और भैया के ससुर जज है। 
मै खाट पर बैठ गया मेरे बैठते ही माँ ने पूछा बेटा पानी लाऊ,'' में बोला नहीं माँ प्यास नहीं है मैंने मना कर दिया नहीं माँ प्यास नहीं है 
''सच ही कहते है माँ होती ही ऐसी है जो औरत पिछले तीन दिन से  बुखार में पड़ी है पर मेरे ऑफिस से घर आने पर मुझे पानी जरूर पूछती है"
माँ और मेरे संवाद को भाभी के भाई अमर ने तोड़ते हुए बोला पानी-वानी होता रहेगा पहले कुछ काम की बात कर लेते है 
विशाखादत्त जी बोले,''देखो बेटा बात  ऐसी है कि हम यहाँ बटवारा करने आये है..........,
"बटवारा !!!!   
पर क्यों.........! "----मै बोला 
इस पर भाभी बोली,"क़ि मै आप सब से  परेशान आ गयी हु अब मुझसे इस घर का काम और नहीं होगा" इस बात पर जब मैंने भईया की ओर देखा और उनके चेहरे से पता चल रहा था कि वो कितना लाचार महसूस कर रहे थे। 

"भईया की शादी छह  साल पहले शिवांगी से हुई थी दोनों कॉलेज में साथ   पढ़ते थे फिर  साथ में प्लेसमेंट भी हो गया और फिर शादी हो गयी पर कुछ महीने बाद ही भईया का ट्रांसफर कंपनी ने दिल्ली कर दिया तो भैया  शिफ्ट हो गए और भाभी हमारे साथ मेरठ ही रहने लगी..... भईया वीकेंड्स पर घर आते तो मानो खुशियाँ अपने साथ ही लाते घर में वो दो दिन उत्सव का माहौल रहता था  कुछ दिंनो तक सब कुछ ठीक रहा फिर कुछ दिंनो बाद पापा को साँस की दिक्कत होने लगी."

पापा को अस्थमा था  बरसात के  मौसम में  अक्सर दिकक्त होती थी पर इसबार तबीयत ज्यादा ही बिगड़ गयी थी।  तो भईया ने तय  की भाभी जॉब छोड़ कर घर पर  रहेंगी और मम्मी का काम में हाथ बटाएंगी।
 इसी दौरान भईया को परमोशन मिल गया और  जूनियर C.A से सीनियर C.A बन गए। 

और एक दिन जब मैं कॉलेज से लौटा तो देखा की पापा की खाट के पास घर के सभी लोग जमा है. जब मैंने पास जा कर देखा तो पाया की पापा लेटे हुए आपनी अन्तिम सांसे ले रहे है मेरे पीछे से भईया घर पहुंच चुके थे। 
पापा को इस हालत में देखकर मेरी आंख से आंसू बहने लगे मेरे सामने मेरा पूरा परिवार धुँधलाने लगा था।  पापा ने माँ से बोले अब इस सब का ख्याल तुझे ही रखना है इतना बोलते ही मम्मी ने पापा को बोला ,''कि आप शांत रहो डॉक्टर ने आपको बोलने से मना किया है माँ अपनी बात बोलती रही और पापा हम सबसे  बहुत दूर ऐसी जगह जा चुके थे जहा से वो  मम्मी की बात का जवाब नहीं दे सकते थे। 

पापा के जाने के बाद  सारी  जिम्मेदारी भईया और भाभी के कंधो पर आ गयी।  जिसे उन्होंने बहुत  जिम्मेदारी के साथ निभाया। 
पर कभी कभी भईया-भाभी के बीच बहस होने लगे, भाभी भईया से इसी बात को हर बार बोलती थी कि,'' मुझे भी जॉब करनी है मैं अब इस घर में और नहीं रह सकती''
कभी-कभी ये बहस झगडे का रूप भी ले लिया करती थी। 

कुछ ही दिंनो में मैं भी कॉलेज से पास-आउट हो गया और  एक प्राइवेट फर्म में as a software-consultant काम करने लगा और कुछ दिन ऐसे ही बीत गये। 

और एक दिन हमारे घर एक नई ख़ुशी आयी माँ ने बताया की में चाचा बनने वाला हूं। 
घर में सभी बहुत खुश थे, पर भाभी कुछ कम खुश थी शायद ख़ुशी में कमी जिम्म्मेदरियो के बढ़ने के कारण थी  
उन दिंनो भाभी और भईया के बीच कुछ ज्यादा ही बहस होने लगी थी भईया जब भी वीकेंड्स पर घर आते तो भाभी और भईया के बीच झगडे होने लगे,मैं और माँ सबकुछ सुनते हुए भी ये सोच रहे थे की एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

और फिर एक दिन हमारे परिवार की खुशिया ले कर आयुष हमारे घर आया और सबको हमको लगने लगाकि अब सब ठीक हो जाएगा और ऐसा हुआ भी आयुष के आने से हमारे घर में खुशिया वापस आ गयी थी अब भईया -भाभी के बीच भी झगडे कम हो गए थे। 
लेकिन जैसे-जैसे आयुष बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे भईया -भाभी के बीच झगड़ा फिर से बड़ा होने लगा।  इन सब के बीच एक आयुष ही था जिसके चेहरे को देखकर सभी के चेहरे खिल उठते थे। 

मुझे मेरे ख्यालो से बाहर निकलने का काम अमर ने किया,"देखो हमने सारी चीज़ो का बटवारा कर  दिया है नीचे की मंजिल तुम्हारी और ऊपर की मंजिल दीदी की,सामान भी हमने आधा-आधा कर दिया है....... पर तुम चाहो तो दीदी का सामान भी तुम इस्तेमाल कर सकते हो क्यूकि दीदी और आयुष जीजा के साथ दिल्ली रहेंगे,"अमर बोला ! 
दिल्ली रहेंगे .......!," मैं आश्च्रर्य से बोला
तभी भाभी मेरी बात को काटते हुए बोली,"वैसे भी मेरी लाइफ के कई साल बर्बाद हो चुके है मैं अपनी पढ़ाई का इस्तेमाल करना चाहती हूं, और वैसे भी इस शहर(मेरठ) में रखा ही क्या है.......?,"
सही ही तो बोला था भाभी ने है ही क्या इस शहर में..... ?
जिस शहर से इस देश का इतिहास जुड़ा है.
उस घर में क्या रखा है?
जिस घर में वो पहली बार दुल्हन बन कर आयी थी जिस  घर में हमने खुशियाँ और गम देखे। उस घर में इन यादों के अलावा कुछ नहीं रखा है और है तो कुछ पुराना सामान जो कुछ समय पहले हमारा था जो अब मेरा तुम्हरा हो गया है 

भईया माँ को अपने साथ ले जाना चाहते थे पर माँ ने ही मना कर दिया 
इतने में अमर बोला कि,"सभी चीजों का बटवारा हो गया है अब बस ये खाट बची है इसे कौन रखेगा"।
वही खाट जो कभी पापा की हुआ करती थी जिस पर पापा ने घर की सारी जिम्मेदारी मम्मी को दी थी जिस पर एक जिंदगी का अंत और एक की शुरआत हुई थी जिस खाट को पकड़ कर आयुष खड़ा होना और धीरे-धीरे चलना सीखा था वही खाट जिस पर में अभी अपने अंदर के सारे जज्बातो और गुस्से को रोके बैठा था अब बारी  उस खाट की भी आ गयी थी 
मैं अपने सारे जज्बातों को समेटते हुए अपनी पूरी ताकत जुटाते हुए बोलने ही वाला था तभी भाभी बोली," ये खाट अंकित ही रख लेगा हमे नहीं चाहिए"।
भाभी के  मुँह से बात सुनकर मुझे  ख़ुशी भी हुई और दुःख भी। 
ख़ुशी इस बात की बात की पापा की वो आखिरी चीज़ जिस पर हमने बहुत-सी खुशियों के पल जो इस पर बैठ बिताये है उन्हें संजो कर रखने की जिम्मेदारी मुझे मिली है। 

और दुःख इस बात का की भाभी को ये सिर्फ एक पुरानी खाट लगी और उस से भी ज्यादा दुःख की बात ये लगी की भईया को इतना लाचार शायद ही कभी पहले देखा था। 
दुःख इस बात का भी था कि हम कितने स्वार्थी हो गए है जो सिर्फ अपने ही बारे में सोचते है।  
दुःख बात का भी था कि हमारे संस्कार हमारी जरूरतों के आगे हार गए।  

 लेखक-सुधीर पाल 

धन्यवाद् 
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